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कविता

नए युग के सौदागर

मदन कश्यप


ये पहाड़ों की ढलान से आहिस्ता-आहिस्ता उतरनेवाले
तराई के रास्ते पाँव-पैदल चल कर आनेवाले
पुराने व्यापारी नहीं हैं

ये इमली के पेड़ के नीचे नहीं सुस्ताते
अमराई में डेरा नहीं डालते
काँख में तराजू दबाए नहीं चलते

ये नमक के सौदागर नहीं हैं
लहसुन-प्याज के विक्रेता नहीं हैं
सरसों तेल की शीशियाँ नहीं हैं इनके झोले में

इन्हें सखुए के बीज नहीं पूरा जंगल चाहिए
हड़िया के लिए भात नहीं सारा खेत चाहिए

ये नए युग के सौदागर हैं
हमारी भाषा नहीं सीखते
कुछ भी नहीं है समझाने और बताने के लिए
ये सिर्फ आदेश देना चाहते हैं
इनके पास ठस-ठस आवाज करनेवाली
क्योंझर की बंदूकें नहीं हैं
सफेद घोड़े नहीं हैं
नहीं रोका जा सकता इन्हें तीरों की बरसात से

ये नए युग के सौदागर हैं
बेचना और खरीदना नहीं
केवल छीनना जानते हैं
ये कभी सामने नहीं आते
रहते हैं कहीं दूर समंदर के इस पार या उस पार

बस सामने आती हैं
इनकी आकांक्षाएँ योजनाएँ हवस

सभी कानून सारे कारिंदे पूरी सरकार
और समूची फौज इनकी है

ये नए युग के सौदागर हैं
हम खेर काटते रहे
इन्होंने पूरा जंगल काट डाला
हम बृंगा जलाते रहे
इन्होंने समूचा गाँव जला दिया।

(2011)

 

टिप्पणी

1. जंगली घास
2. खर-पतवारों को इकट्ठा कर जलाना

 


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